प्रख्यात रचनाकार अनिता अग्रवाल की साहित्यिक यात्रा पर विशेष



  • सृष्टि, समाज ,संस्कृति और संवेदना के संतुलित समन्वय से ही रचा जाता है साहित्य
  • एकपक्षीय चिंतन कभी नही उपस्थित करता सार्थक विमर्श
  • स्वयं के जीवन को पढ़े बिना अच्छा लिख पाना संभव नही

प्रज्ञा मिश्रा

वह चिंतक हैं। विधि विशेषज्ञ हैं। कवयित्री हैं। कथाकार हैं। संस्कृति संयोजक और सृजनकार हैं। प्रखर वक्ता हैं। सफल पुत्री, संवेदनशील माता, साधक सहधर्मिणी और अत्यंत आदर्श गृहिणी हैं। गोरखपुर की न्याय व्यवस्था में स्थाई लोक अदालत में सदस्य जज के अलावा कई पत्र पत्रिकाओं के संपादक मंडल में विशिष्ठ सहयोगी के रूप में अनिता अग्रवाल का पत्रकारीय योगदान भी विलक्षण है। यह कहना अतिश्योक्ति नही होगा कि पूर्वांचल में आधी आबादी की एक बड़ी और सशक्त प्रतिनिधि के रूप में अनिता अग्रवाल ने बहुत लंबी साहित्यिक यात्रा भी तय की है। उनके एक विशिष्ट कार्य के रूप में प्रकाशित बारहमासा नामक पुस्तक को पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने संस्कृति के क्षेत्र में विशिष्ट पहचान देते हुए सम्मानित भी किया है।

वस्तुतः अनिता अग्रवाल को पूर्वांचल के साहित्यकारों की अग्रिम पंक्ति में एक खास स्थापना मिल चुकी है जिसका प्रभाव नई पीढ़ी पर भी देखा जा रहा है। ऐसी विशिष्ट रचनाकार के बारे में और कुछ कहने से पहले यह आवश्यक हो जाता है कि उनके जीवन के महत्वपूर्ण पक्षो पर दृष्टिपात कर ली जाय। वर्ष 1959 में कुशीनगर जिले के मुख्यनगर यानी पडरौना में एक व्यवसायी परिवार में जन्मी अनिता अग्रवाल ने स्नातक और विधिस्नातक कि शिक्षा गोरखपुर विश्वविद्यालय से ग्रहण किया है। वह एक पंजीकृत अधिवक्ता है। वर्ष 1999 से 2012 तक वह गोरखपुर में परिवार अदालत में अपनी सेवा देती रही हैं। सरोकार के नाम से उन्होंने स्वतंत्र परिवार परामर्श केंद्र की भी स्थापना की। अपने छात्र जीवन से ही रचनाशील रही अनिता अग्रवाल का प्रथम काव्यसंग्रह वर्ष 1982 में आया जिसका शीर्षक था - नींद टूटने तक। यही वह समय था जब अनिता अग्रवाल की तरफ तत्कालीन साहित्यिक लोगो का ध्यान गया। इनके उस संग्रह की खूब तारीफ हुई। इनका दूसरा काव्य संग्रह 2008 में आया जिसका शीर्षक था बसंत में बारूद। तीसरा संग्रह नदी का सच नाम से 2015 में प्रकाशित हुआ।

अनिता जी के इन तीन काव्य संग्रहों ने आधुनिक हिंदी कविता के साहित्यिक क्षितिज पर उन्हें बड़े सम्मान के साथ स्थापित कर दिया। इस बीच वह समाज के अन्य विषयों पर भी लगातार बोल, लिख और प्रकाशित हो रही थीं। वह स्वयं का मूल्यांकन करते हुए स्वीकार करती हैं -

सृष्टि, समाज ,संस्कृति और संवेदना के संतुलित समन्वय से ही अच्छा साहित्य रचा जाता है। एकपक्षीय चिंतन कभी नही सार्थक विमर्श की स्थापना नही कर सकता। स्वयं के जीवन को पढ़े बिना अच्छा लिख पाना संभव नही है। वह मानती हैं कि खास तौर पर स्त्री रचनाकारों की यह बड़ी जिम्मेदारी बनती है कि वे सृष्टि, समाज और संस्कारों के लिए कार्य करें। साहित्य को समाज के आंगन के रूप में सजाने के प्रयास में रहें न कि विघटन को प्रोत्साहित करें। 

विशुद्ध संस्कृति को केंद्र में रख कर उन्होने नेगचार सगुन और बारहमासा को लिखा है। अभी हाल में उनका एक नया संग्रह स्मृतियों का वातायन नाम से प्रकाशित होकर आया है। यह कविताओं का संग्रह है। अनिता जी ने श्री रामचरित मानस के सुंदरकांड का तथा श्री दुर्गासप्तशती का मारवाड़ी भाषा मे अनुवाद कर एक बहुत बड़ा कार्य किया है।

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